Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam

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Page 182
________________ ( १७० ) कि महाराज ! आप शिक्षा प्रचार में पाप श्रता रहे हैं मगर शिक्षा का सम्बन्ध अव श्राजीविका से जुड़ा हुआ है। केवल आपके पाप बताने से लोग पढ़ने से रुक नहीं जायेंगे। लोग जैसे जैसे शिक्षित होंगे, उनमें तर्क और ज्ञान बढ़ेगा । ज्ञान बढ़ने से प्रत्यक्ष गणित से असत्य साबित होने वाली बातों को अक्षर अक्षर ग्रत्यता की आपकी मोहर (छाप ) टूटे वगैर कैसे रहेगी ? महाराज ने गम्भीर होकर उत्तर दिया कि 'यह विचारने की बात हो रही है।' सम्पादकोंजी ! मुझे तो अब कुछ न कुछ समाज सुधार की तरफ रवैया बदलता प्रतीत हो रहा है; चाहे उपदेश की शैली बदल कर, चाहे श्रावकों द्वारा समाज सुधार के लिए कोई संघ या सभा कायम होकर और अब भी कुछ न हो तो महान विनाश निकट ही है। पर मुझे विश्वास होने लगा है कि आपके 'तरुण' की उछल कूद खाली नहीं जाने की । असत्य प्रमाणित करने कुछ दिन पहिले मैं कार्यवशात् सुजानगढ़ गया था। सिंघीजी से भी मिला। बड़े सज्जन प्रतीत होते थे। मैंने कहा, " आपके 'तरुण' के लेखों में शास्त्रों की बातों को की सामग्री तो लाजवाब है, मगर आप सर्वज्ञता के शब्द साथ कहीं कहीं मजाक से पेश आ रहे हैं। यह बात मेरे हृदय में खटकती है।" वे कहने लगे, "क्या आप स्वीकार करते हैं कि सर्वज्ञों की बात प्रत्यक्ष में असत्य हो सकती है। यदि नहीं तो ऐसी

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