Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam

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Page 183
________________ ( १७१) बातों के कहने वालों को आप सर्वज्ञ समझें ही क्यों ? सर्वज्ञ सत्य के कहने वाले ही होंगे, ओर उनके साथ मजाक करने की मज्जाल हो किस की है ?" फिर वे कहने लगे, "मैंने ऐसा सोच समझ कर ही किया है कारण यदि मैं दूसरो शैली से लिखता तो इन लेखों को रुचि से कोई पढ़ता तक नहीं। एक तो यह शाखों का विषय ही शुष्क ठहरा और दूसरे उपदेशकों ने अपनी 'सन्तवाणी' द्वारा सैंकड़ों वर्षों के लगातार प्रयत्न से लोगों को शास्त्रों के अन्ध भक्त बना दिये हैं । इसलिए बिना चुभने वाले शब्दों से मुके असर होता नहीं दिखा।" सिंघीजी की बात कुछ मेरे भी जँची । खैर, आप मुझ से परिचित तो हो हो गये हैं । थळी प्रान्त की हलचलों के बाबत आपको कभी कुछ पूछना हो तो मुझ से पूछ लिया करें। आप संकोच न करें। मेरा हृदय विशाल है, मैं साफ कहूँगा । समय समय पर मैं स्वयं भी आपको यहाँ की गति विधि से वाकिफ करता रहूँगा । 1 I * आपका 'थली वासी'

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