Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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तेरा-पन्थी साधुओं का डाक से कोई सम्बन्ध है या नहीं, यह प्रश्न भी उठा । 'तरुण जैन' में इस बारे में मैंने पहले कुछ लिखा था; उसी को लेकर यह चर्चा चली। इस प्रश्न में 'तरुण' के पाठकों को भी दिलचस्पी होगी, इसलिए मैं इसके विषय में कुछ लिख रहा हूँ । मेरे यह कहने पर कि "आपके साधु भी जब डाक द्वारा आये हुए पत्र पढ़ते हैं और उन पर अपनी सम्मति भी देते हैं, तय डाक से आप का सम्बन्ध कैसे अलग माना जाय ?" पूज्यजी ने कहा, "साधु केवल 'वंदना' के पत्र पढ़ते हैं, और कुछ नहीं पढ़ते; इसमें कोई दोष नहीं है ।" मुझे मालूम पड़ा कि उन्हें इसी से सन्तोष है कि उनके नाम न तो कोई पत्र आता है और न वे पत्र लिखते हैं। हाँ, गृहस्थ कोई बात पूछता है, तो उसका जवाब देना तो उनका फर्ज है हो । मैंने पूछा'आप से गृहस्थों को मिला हुआ जवाब उनके द्वारा दूर गाँवों में विचरण करने वाले साधुओं के पास डाक द्वारा उस गाँव के श्रावकों के मारफत पहुँचाया जाता है और उसे वहाँ वाले साधु आपकी श्राज्ञा मान कर ही स्वीकार करते हैं। इससे क्या आप यह नहीं मानते कि डाक के साथ आपका अप्रत्यक्ष सम्बन्ध हो ( जाता है चाहे आप खुद अपने नाम से पत्र व्यवहार न करें ।" इस पर भी जब उन्होंने कहा - 'नहीं', तब फिर चर्चा की २१