Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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की साधना पर ही पंच महाव्रतों का आधार है, तो एक प्राणी के लिए जितना हिंसा-पालन सम्भव हो सकता है उतना यदि एक आदमी करता है, फिर भी न तो वह पंच महाव्रतों की व्याख्या ही जानता है, और न अमुक प्रकार का वेप पहनता है और न अमुक प्रकार का अध्ययन हो करता है और न अमुक प्रकार की क्रियाएँ हो करता है पर वो अपना सारा जीवन अपने अहं को कुचलकर दूसरों की सेवा में खपाता है, तो वह सुपात्रों को गिनती में श्राता है या नहीं ?" यह कहते हुए कि 'आ सकता है' महाराज को काफी कठिनाई सी हुई । स्वीकार तो कर लिया, यहो क्या कम है ? इन सारी बातों से यो मालूम होता है कि बुद्धि और विचार के लिए बहुत कम गुंजाइश इस तरह के सम्प्रदायवाद के घेरों में रह गई है । जहाँ बुद्धि इतनी संकुचित है, हृदय इतना संकोर्ण है, जीवन के कर्तव्य इतने सीमित है, वहीँ मानवता के लिए है ही क्या ?.
खैर, उन्होंने इतना
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दीक्षा देते समय पूण्यजी दीक्षा लेने वाले के अभिभावक से एक आशा-पत्र लेते हैं । गत चातुर्मास में दी हुई दीक्षाओं के ऐसे श्राज्ञा पत्र मेरे सामने रखे गये, शायद यह दिखाने के लिए कि लड़के-लड़कियों के अभिभावक को आज्ञा मिलने पर ही दीक्षा दी जाती है । मैंने दो तीन आज्ञा-पत्र पढ़े, लगभग सब का एक ही मसविदा था। इस आज्ञा-पत्र के अन्तिम हिस्से में