Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( १५३ ) कपड़ा और पैरों के जूते ये सब उनके लिए बनाए गये हैं, और इनके बनाने वाले पिछली पीदियों में रहने वाले वे लोग नहीं थे, जो अब सब मर-खप गये हैं। ये सब काम आजकल विद्यमान रहने वाले वे ही लोग कर रहे हैं, जो अपनी जरूरतें पूरी करने नहीं पाते और दुनिया में दूसरों के लिए मेहनत करते घुल घुल कर मर जाते हैं।"
खेती करने में और हर प्रकार की प्रवृत्ति में ये साधु पाप घताया करते हैं और पाप से मुक्त होने का उपदेश दिया करते हैं, पर जब उनसे सीधा प्रश्न किया जाता है कि 'अगर सभी आपका उपदेश मान लें और पाप समझ कर हर प्रकार की उत्पादक प्रवृत्ति छोड़ दें तो हमारा और आपका जीवन कैसे चलेगा और यह आत्म कल्याण कैसे निमेगा?' तो ऐसे प्रश्नों से वे अपना कोई वास्ता नहीं समझते और टाल्स्टाय के ही शब्दों में " उस प्रश्न से बिल्कुल असम्बद्ध प्रश्नों की पाण्डित्य पूर्ण चर्चा करने लग जाते हैं।' संसार के नाम पर सभी तरह की प्रवृत्तियाँ आदमी करते हैं और कर सकते हैं, साधुओं को उससे कोई मतलब नहीं; पर मैं पूछता हूँ, प्रवृत्तियों से चाहे वे मुक्त हों, पर प्रवृत्तियों के परिणाम से कहाँ मुक्त हैं ? खेती करने को वे पाप बताते हैं, पर अन्न वे खाते हैं; कुआँ खुदाने को पाप कहते हैं, पर कुएँ का पानी पीते हैं। कपड़ा बुनने और बुनवाने में वे पाप