Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam

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Page 177
________________ (१६५ ) है, समाज से अपने लिए नाना भाँति को सेवा लेते रहने में कोई आपत्ति नहीं समझता। आप अगर १०-१५ दिन लगातार हमारे साधुनों को सेवा (!) का लाभ लें तो आपको पता लगेगा कि जहाँ पूज्यजों की सवारी पहुँच जाती है, वहाँ के समाज की इस सेवा के भार से क्या हालत हो जाती है। माघ महोत्सव और चातुर्मास के दिनों में गाँव वालों की परेशानियों इतनी बढ़ जाती हैं, कि जिसका कुछ ठिकाना नहीं। सम्पादकोंजी! मुझे सचमुच अपने समाज के उन हजारों खी पुरुषों पर तरस आता है, जो विवेक की माँखे बन्द हो जाने के कारण इनके जाल में फंसे हुए हैं। थली के गाँवों की सार्वननिक और सांस्कृतिक हालत का जो दिग्दर्शन आपने अपने लेख में कराया है, उसको पढ़कर क्या हमें शर्म नहीं आती ? हमार। मस्तक झुक जाता है, हमारा यौवन बलवा कर उठता है, पर क्या करें सम्पादकोंजी! यह सब हमारे उन साधुओं की कृपा है। जहाँ ये विरानते हैं, वहाँ आस पास कोसों तक मानवता के खेत सूख जाते हैं क्योंकि इनके उपदेश ही ऐसे हैं। हम जानते हैं कि इससे जैन धर्म कलंकित हो रहा है क्योंकि हमारी तरफ की जनता तो इन्हीं जैन मूर्तियों को ज्यादा देखती है, और इस बात से प्रभावित भी होती है कि इनको मानने वाले सब सेठ लोग हैं, लाखों और करोड़ों रुपया कमाते हैं। ये साधु खुद तो परिवार, २२

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