Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam

View full book text
Previous | Next

Page 175
________________ ( १६३ ) संस्था की लीला भी देख आये; और जो कुछ देखा उसका वर्णन भी कर दिया.. मैं समझता हूँ आप पड़िहारा में जो देख कर आये हैं उसके बाद मेरे इस कथन से अवश्य सहमत हुए होंगे कि साधु संस्था का मानस आज बिलकुल गलित हो चुका है। उसमें जो कुछ डाला जाता है, वह सव सड़ और गल जाता है, कोई मौलिक वस्तु तो वहाँ पैदा ही नहीं हो सकती। ऐसे लोगों के हाथों में जिस धर्म और समाज का नेतृत्व हो, उसका भविष्य अन्धकार मय है। अयोग्य हाथों में पड़कर अच्छे से अच्छे साधन भी निष्फल और निरर्थक हो जाते हैं, यह कहावत आज हमारे साधुओं के विषय में पूरी तरह सत्य सावित हो रही है। अहिंसा का शक्ति शाली शस्त्र गलत तरह से प्रयोग किये जाने के कारण तेज प्रदान करने के बदले हमें निराश बना रहा है। मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि थली की. बौद्धिक और सांस्कृतिक दृष्टि से आज जो अवस्था उत्पन्न हुई है, उसके 'कारणों में समाज के प्रति साधु संस्था की मनोवृत्ति ही मुख्य है। . यह मनोवृत्ति गहरी निराशाजनक है। जब तक यह मनोवृत्ति रहेगी, तब तक थली के लोगों को दिमागी और तहजीबी हालत में कोई सुधार नहीं होगा। और मानवता का कोई मूल्य यहाँ के लोग नहीं समझेंगे। जो लोग कभी कदास इन साधुओं के पास ' आ जाते हैं, उनके सामने ये ऐसी उत्कट नैतिकता . और कष्ट

Loading...

Page Navigation
1 ... 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195