Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( १५८ ) गुंजाइश ही नहीं रही। बात कुछ भी हो, मानना या न मानना तो उनकी मर्जी की बात है। - इसके बाद मैंने साधुओं के द्वारा बनाई हुई तसवीरें देखी, सुन्दर अक्षर-लेखन के उत्कृष्ट नमूने देखे, तेरा-पन्थी सम्प्रदाय के लिए प्रकट को हुई तारीफ के सरकारी गजट देखे, सन्त और. संतियों की भीड़ देखी; श्रावकों की भक्ति और सेवा-भावना का अतिरेक देखा, साधुओं को दिनचर्या देखी और सुनी। यह भी सुना कि अमुक साधु ने २००० और अमुक ने ५०००-७००० श्लोक याद कर रखे हैं, पर मुझे तो.असली, साधुत्व के दर्शन करने थे। इन तसवीरों में, इन :गजटों में, इन आज्ञा पत्रों में
और इन हजार हजार श्लोकों की रटना में साधुत्व कहाँ से आवे?. जिसकी आत्मा इतनी छोटी है कि संसार की वेदना को वह अपनी वेदना नहीं समझ सकता, संसार की समस्याओं को सुलझाने में कोई योग नहीं दे सकता, समाज और राष्ट्र को समा मार्ग-दर्शन नहीं दे सकता, उसका कैसा आत्म कल्याण ? शरीर से आत्मा अलग नहीं हो सकती, तो संसार और समाज से धर्म भी अलग नहीं हो सकता। आत्मा के विकास के लिए शरीर का पोषण किये बिना काम नहीं चलता, वैसे ही धर्म की साधना
और विकास के लिए भी समाज और संसार की सेवा करना' जरूरी है। स्वार्थ को छोड़कर निस्वार्थता का सम्बन्ध तो संसार