Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( १५६ ) कुछ इस आशय के शब्द है कि 'यह मैं नो श्राका देता हूँ, उसके कभी खिलाफ नहीं होऊँगा और पंचायत, राज दरबार ब्रिटिश सरकार में मेरी कोई आपत्ति नहीं चलेगी।' शन्न चाहे जो हैं, भाव कुछ इसी प्रकार का है। मुझे यह पढ़कर बड़ा आश्चर्य हुआ। जिस सामाजिक शक्ति और राज्य सत्ता को ये साधु कछ समझते ही नहीं, उनका कोई महत्व ही नहीं मानते, तब उनकी मदद की भावना को दर्शाने वाले शब्द आना-पत्र में क्यों लिखाये जाते हैं ? पर भीवर की कमजोरी वाहर आए विना नहीं रह सकती। कहीं कोई साधु-संस्था पर ही राज्य की मदद से नाबालिग बालकों के अपहरण (जिसको दीक्षा कहा जाता है) का अभियोग न लगा दें; इस भय के कारण ही आज्ञा-पत्र लेने
और उसमें इस तरह के शब्द लिखाने की आवश्यकता हुई। मेरी आपत्ति पर पूज्यजी ने जवाब दिया कि 'यह कोई खास बात नहीं है। वर्षों से ऐसा ही स्वरूप चला भाता है। एक दो दफा पहले झंझट आ चुकी है, इसलिये ऐसा कर दिया गया है।' साधुओं के लिए, अहिंसा को मानने वालों के लिए झंझट क्या हो सकती है और इससे बचने के लिए हिंसा-शक्ति पर आश्रित राज्य सत्ता की अप्रत्यक्ष मदद की भी उन्हें क्या दरकार है ? साधुओं को अहिंसक शक्ति का यह एक नमूना है।
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