Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( १०६ ) केशी श्रमण ने यह सब नहीं किया, इसलिए तेरह-पन्थियों की दृष्टि में केशी श्रमण, कर्तव्य से भ्रष्ट हुए। लेकिन केशी श्रमण कर्तव्य भ्रष्ट थे, ऐसा तेरह-पन्थी भी कहते या मानते नहीं है। ऐसी दशा में तेरह पन्थियों की यह दलील कोई कीमत नहीं रखती, कि राजा प्रदेशी का दानशाला विषयक कथन सुनकर केशी श्रमण कुछ नहीं बोले थे, और इसलिए राजा प्रदेशी का दानशाला खोबना पाप था। : केशी श्रमण के न बोलने से, और केशी श्रमण ने दानशाला विषयक राजा प्रदेशो के विचार की सराहना नहीं की थी, इससे यदि राजा प्रदेशी का दानशाला खोलना पाप है, तो प्रानन आवक का व्रत अभिप्रहमादि स्वीकार करना भी पाप हो जावेगा। क्योंकि प्रानन्द श्रावक ने अन्य यूथिक साधुओं को दान सम्मान मादिन देने तथा श्रमण निग्रन्थ को भोजन पानी पारि देने विषयक जो अभिप्रह भगवान महावीर के सामने किया था, उस मभिप्रह के करने पर भी भगवान महावीर कुछ नहीं बोले थे। . : भगवान महावीर ने आनन्द श्रावक के अभिग्रह की सराहना नहीं की थी। इसलिए तेरह-पन्थी लोग जिस तरह आनन्द श्रावक के अभिग्रह का अर्थ साधु के सिवाय अन्य सभी को न देना करते हैं, उसी तरह साधुओं को देना भी पाप ठहरेगा क्योंकि भगवान ने दोनों ही की सराहना नहीं की थी। इसलिए तेरह