Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( ११४ ) उनकी दलीलों का खण्डन करने के लिए एक ही दलील काफी है, जो हम नीचे लिखते हैं।
तीर्थङ्करों को मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन ज्ञान जन्म से ही होते हैं। इसलिए इस काल के तेरह-पन्थी साधुओं की अपेक्षो उनका धार्मिक ज्ञान कम तो हो ही नहीं सकता। क्योंकि पूर्ण श्रुत ज्ञान चौदह पूर्व-धारियों को ही होता है, उन्हें ही सर्वाक्षर सन्निपाती कहते हैं। शेष सब श्रुत ज्ञान से अपूर्ण हैं। तेरह-पन्थी साधुओं में दो ज्ञान भी पूरे नहीं हैं। ऐसी दशा में भगवान तीर्थङ्करों द्वारा किये गये जीव रक्षा के कामों को पाप या भूल कहने की योग्यता रह-पन्थियों में कहाँ से श्रागई?
. . तेह-पन्थियों की इस अनधिकार चेष्टा से वो जाना जाता है, कि तेरह-पन्थियों में तीर्थङ्करों से भी ज्यादा ज्ञान होना चाहिए। परन्तु है श्रतज्ञान को यथा तथ्य समझने की मति का दिवाला ! क्योंकि भगवान अरिष्ट नेमि की भूल उनके पीछे वाले कोई तीर्थहर न जान सके, भगवान पार्श्वनाथ का पाप भगवान पार्श्वनाथ स्वयं अथवा भगवान महावीर न जान सके, और भगवान महावीर की गलती भगवान महावीर को अन्त तक दिखाई न दी, लेकिन तेरहपन्थी साघु तीनों तीर्थङ्करों की भूल और उनके पाप को समझ