Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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. ( १३४ ) का त्याग कराने से जो बकरा बच गयो उसका धर्म या पाप भी त्याग कराने वाले को नहीं लगता। जिस तरह धन का बचाना पाप है, उसी प्रकार बकरे का बचाना भी पाप है, परन्तु जिस तरह व्यभिचार का त्याग कराने से जो स्त्री मर गई, उस स्त्री के मरने का पाप उपदेश देने वाले को नहीं लगता, उसी प्रकार धन और बकरे के बचने का पाप भी उपदेश देने वाले को नहीं लगता।'
यह है मरते हुए जीव को बचाने में पाप सिद्ध करने के लिए तेरह-पन्थी साधुओं की कुयुक्ति ! इस युक्ति से लोगों को भ्रम में डालने के लिए कैसी झूठी बातों का आश्रय लिया गया है, पहले हम यह बता देना उचित समझते हैं । धन की रक्षा के लिए साधु उपदेश देते हैं, या धन की रक्षा के लिए शास्त्र कहता है, यह बात कोई भी नहीं मानता। प्रश्न प्राण रक्षा का है, न कि धन रक्षा का। शास्त्र में 'पाणानुकम्पए, भूयानुकम्पए, जीवानुकम्पए, सत्तानुकम्पए' पाठ तो पाया है, परन्तु 'धनानुकम्पए' कहीं नहीं
आया है। ऐसी दशा में जीव रक्षा के सम्बन्ध में धन रक्षा का उदाहरण देना, किसी भी तरह उपयुक्त नहीं है । धन जड़ है,
और जीव चैतन्य है। जीव को सुख दुःख का अनुभव होता है, लेकिन धन को सुख दुःख का अनुभव नहीं होता। धन चाहें जमीन के ऊपर रहे, जमीन के भीतर रहे, चोर के यहाँ रहे,