Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( १२८ )
हो जीव एक हजार । दूजी छुड़ाया इण विधे, एक दोय सं हो चोथो आस्रव सेवाड़ || एकण सेवायो आस्रव पाँचमो, तो उण दूजी हो चौथो आस्रव सेवाय । फेर पड़यो ईतो इण पाप मे, धर्म होसी हो ते तो सरीखो थाय । ( 'अनुकम्पा' ढाल ७ वीं )
अर्थात् — दो वेश्याएँ कसाईखाने में गई। वहाँ बहुत जीवों का संहार होता देखकर दोनों ने सलाह की और दो हजार जीवों को मरने से बचाया। एक वेश्या ने तो अपने आभूषण देकर एक हजार जीव बचाये, और दूसरी वेश्या ने कसाई वाड़े के एक दो आदमी से चौथा आस्रव ( श्रब्रह्मचर्य या व्यभिचार ) सेवन कराकर एक हजार जीव बचाये । इनमें एक वेश्या ने गहने देकर पाँचवें आस्रव ( परिग्रह ) का सेवन कराया और दूसरी ने चौथे आस्रव ( व्यभिचार ) का सेवन कराया। उन दोनों के पाप में 'क्या अन्तर हुआ ? यदि धर्म होगा, तो दोनों ही को बराबर होगा !
तेरह-पन्थियों के कहने का अभिप्राय यह है, कि धन देना, सेवन कराना है, और व्यभिचार करना,
यह पाँचवें आश्रव का चौथे आश्रव का सेवन कराना है। इसलिए यदि धन देकर जीव बचाना धर्म है, तो व्यभिचार कराकर जीव बचाना भी धर्म
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