Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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(१११ ) समम वाला जादमी जानता है, कि बचाने का नाम रक्षा है, व्यवहार में भी रक्षा शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है, और टीका में भी रक्षा का भथे बचाना ही कहा गया है, फिर भी तेरह-पन्थी लोग यह कह कर लोगों को भ्रम में गल देते हैं, कि किसी को न मारना, यही दया या रक्षा है। किसी मरते हुए को बचाना दया या रक्षा नहीं है। उनका यह कथन केवल लोगों को भुलावे में डालकर अपने मत का प्रचार करने के लिए ही है।।
जैन शाल और जैन शासन प्रधानतः मरते हुए जीवों की रक्षा के लिए ही है। इस बात को अंग्रेज विद्वान् भी मानते हैं। इतिहासज्ञों का भी कथन है, कि जैन धर्म संसार में दुःख पाते हुए तथा मारे जाते हुए जीवों को त्राण देने के लिए ही है। बुद्धि से भी विचारा जा सकता है, यदि जैन धर्म किसी मरते हुए प्राणी को बचाने में पाप मानता होता, तो यह अपने समकालीन प्रतिस्पर्धी बौद्ध धर्म के सामने टिकता हो कैसे ।
इन सब बातों के सिवाय, शास्त्रों में मरते हुए जोव को बचाने के लिए आदर्श रूप में अनेक उदाहरण भी पाये जाते हैं। जैसेभगवान अरिष्ट नेमि ने मारे जाने के लिए बन्द किये हुए बाड़े (पीजरे)में से पशुओं को छुड़ाया था, यह बात हम पहले कह आये हैं। भगवान पार्श्वनाथ ने भी आग में जलते हुए नाग को बचाया था और भगवान महावीर ने भी यज्ञ में होने वाली पशु-हिंसा का