Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
View full book text
________________
( १०४ ) .. 'वर्तमान काले देतो लेतो देखी पाप कहाँ अन्तराय लागे । अने उपदेश में हुवे जिसा फल बतायां अन्तराय लागे नहीं। अनेक ठामे असंयती ने दान देवे तेहना कडुआ फल उपदेश में श्री तीर्थंकर देवे कह्या छ। ते भणी उपदेश में पाप कहाँ अन्तराय लागे नहीं। उपदेश में छे जिसा फल वतायां अन्तराय लागे तो मिथ्या दृष्टि रो सम्यग्दृष्टि किम हुवे। धर्म अधर्म री ओलखना किम
आवे, ओलखणा तो साधु री वताईज आवे छ ।' ____ अर्थात्-वर्तमान काल में देता लेता देख कर पाप करने से अन्तराय लगती है, परन्तु उपदेश में जैसा फल हो वैसा फल बताने से अन्तराय नहीं लगती। उपदेश में तो तीर्थकरों ने अनेक जगह असंयति को दान देने का कटु फल कहा है। इसलिए 'असंयति को दान देना पाप है', ऐसा उपदेश में कहने से अन्तराय नहीं लगती। यदि उपदेश में संयति को दान देने का कटु फळ बताने से अन्तराय लगती हो, तो मिथ्या दृष्टि व्यक्ति सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? धर्म अधर्म की पहचान कैसे हो सकती है? धर्म अधर्म की पहचान तो साधु के बताने से ही जानी जाती है।
तेरह-पन्थियों के इस कथनानुसार राजा प्रदेशी के दानशाला खोलने विषयक विचार को पाप बताने में केशी श्रमण को किसी