Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
View full book text
________________
( १०३ ) : यहाँ पर तेरह-पन्थी लोग एक दलील देते हैं। उस दलील का उत्तर देना मी आवश्यक है। तेरह-पन्थी लोग कहते हैं कि राजा प्रदेशी की दानशाला खोलने विषयक प्रतिज्ञा सुनकर भी केशी श्रमण मौन हो रहे। केशी श्रमण कुछ बोले.नहीं, मौन रहे, इस लिए राजा प्रदेशी का दानशाला खोलना पाप है। क्या ही मजेदार दलील है? इस दलील के अनुसार जिस बात को सुनकर साधु चुप रहे, वह पात पाप में ही मानी जावेगी। परन्तु राजा प्रदेशी ने दानशाला की बात कहते हुए यह भी कहा था कि 'मैं शील प्रत्याख्यान और पौषध उपवास करता हुआ विचरूँगा। राजा प्रदेशी के इस कथन को सुनकर भी केशी मुनि कुछ नहीं बोले थे। इस लिए क्या शील प्रत्याख्यान और पोषध उपवास भी पाप है ? केशी मुनि के न बोलने पर भी यदि शील प्रत्याख्यान और पौषध उपवास पाप नहीं हैं, तो दानशाला खुलवाना तथा दान देना ही पाप क्यों हो जावेगा? और यदि साधु के सिवाय अन्य लोगों को देना पापं था, तो केशी श्रमण ने राजा प्रदेशी के दानशाला खोलने विषयक विचार को निन्दा क्यों नहीं की थी ? यदि यह कहा जावे किं दानशाला खोलने विषयक विचार की निन्दा करने से बहुत से लोगों को अन्तराय उगती, तो तेरह-पन्थियों का यह कथन, उन्हीं के कथन के विरुद्ध होगा। तेरह-पन्थी लोग 'भ्रम-विध्वंसन' पृष्ट ५१-५२ में स्पष्ट कहते हैं, कि- .