Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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पास जो कुछ हो, वही छीन ले । परन्तु केशी श्रमण का उपदेश सुन कर उसने केशी स्वामी के सामने यह प्रतिज्ञा की कि
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अहं णं सेयंविया पामोक्खाईं सत्तग्गाम सहस्साईं चत्तारि भागे करिस्सामि । एगे भागे वल वाहणस्स दल इस्तामि, एगे भागे को हागारे दलइस्सामि, एगे भागे अन्तेउरस्स दलइस्तामि, एगेण भागेणं महइ महालिय कुडागार सालं करिस्सामि । तत्थणं बहु हिं पुरिसेहिं दिण्णभत्ति भत्तवेयणेहिं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता वहुणं समण माहण भिक्खुयाणं पंथि पहियाणय परिभोये माणे वहुहिं सीलवय, पच्चक्खाणं पोसहोववासेहि जाव विरस्सामि |
अर्थात् — मैं श्वेताम्बिका नगरी प्रभृति सात हजार प्रामों को (यानी मेरे राज्य को ) चार भागों में बाँटकर एक भाग बल वाहन ( फौज वग़ैरा ) के लिए दूँगा, एक भाग खजाने के लिए दूँगा, एक भाग अन्तःपुर के लिए दूँगा और एक भाग से एक बहुत बड़ी दानशाला बनवा कर उसमें बहुतसे नौकर रखकर, बहुतसा श्रशन पान स्वाद्य स्वाद्य ( खाने पीने के पदार्थ ) बनवा कर श्रमण (साधु), माहन (ब्राह्मण या श्रावक ), भिक्षुक और मार्ग चलते
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