Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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का जो निश्चय किया था, वह धर्म जागरणा करते हुए। यदि इस . तरह का विचार पाप होता, तो शाखकार यह लिखते कि धर्म जागरणा करते हुए उसको इस तरह का पाप पूर्ण विचार हुआ। उसके विचार को धर्म जागरणा के ही अन्तर्गत न मानते। • . आनन्द प्रावक के चरित्र से तेरह पन्थियों का यह कथन तो झूठ ही ठहरता है कि श्रावक, सम्बन्धी और न्याति गोति आदि को खिलाना पाप है। यदि तेरह-पन्थियों का कथन सही माना जावे, तो उसके साथ यह मानना होगा, कि आनन्द श्रावक ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ी थी। क्योंकि हम यह बता चुके हैं कि आनन्द श्रावक ने सब को खिलाने पिलाने भादि का जो निश्चय किया था, तथा सबको जो खिलाया पिलाया था, वह किसी भी आगार के अन्तर्गत नहीं पाता है। और आनन्द श्रावक ने अपना कोई व्रत अभिग्रह तोड़ा हो, ऐसा शास्त्र में कोई पाठ भी नहीं है। इसलिए इस सम्बन्ध में तेरह पन्थियों की कोई भी दलील सत्य नहीं ठहरती है। . साधु के सिवाय अन्य लोगों को दान देना पाप नहीं है, यह सिद्ध करने के लिए हम एक दूसरा शास्त्रीय प्रमाण भी देते हैं। 'राय प्रसेणी' सूत्र में राजा प्रदेशी का वर्णन पाया है। राजा प्रदेशी पहिले नास्तिक था। नास्तिक होने के कारण, वह किसी को दान दे, यह सम्भव नहीं है, बल्कि यही सम्भव है, कि वह दूसरे के