Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( ८५ ) कराती हो। दूसरी सकाम निर्जरा है । सकाम निर्जरा सम्यग्दृष्टि ही कर सकता है, मिथ्या दृष्टि कर नहीं सकता। सकाम निर्जरा आत्मा को मोक्ष प्राप्त कराने वाली मानी गई है, और यदि मिथ्या दृष्टि भी सकाम निर्जरा कर सकता हो, और सकाम निर्जरा करके मोक्ष प्राप्त कर सकता हो, तो फिर सम्यक्त्व व्यर्थ हो जावेगा। फिर सम्यक्त्व की कोई आवश्यकता ही न रहेगी।
जब मिथ्यादृष्टि भी सकाम निर्जरा कर मोक्ष प्राप्त कर सकेगा, तव सम्यक्त्व की क्या कीमत रही ? इसलिए सम्यग्दृष्टि ही सकाम. निर्जरा कर सकता है। जीव सम्यग्दृष्टि तभी माना जाता है जब कि निश्चय में तो दर्शन सप्तक यानी अनन्तानुबन्धी चौकड़ी एवं मिथ्यात्व मोहिनी, मिश्र मोहनीय तथा सम्यक्त्व मोहिनी इन सात प्रकृतियों का क्षयोपशम करे और व्यवहार में जोवा-जीवादि.नव-तत्त्वों को समझे तथा देव गुरु धर्म का स्वरूप समझकर शुद्ध देव गुरु धर्म की श्रद्धान् करे, तब सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। जहाँ तक सम्यक्त्व नहीं होता, सकाम निर्जरा ' नहीं कर सकता। पुण्-पन्ध तो पहिले से लगा कर तेरहवें गुणस्थान तक सभी जगह होता है । जब आत्मा - एकेन्द्रिय अवस्था में होता है, वहाँ पर सम्यक्त्व तो होता हो नहीं और सम्यक्त्व विनी सकाम निर्जरा नहीं, तब विना निर्जरा के पुण्य
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