Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( ८८ ) सहायक हो जाता है। इसीलिए शास्त्र में नव प्रकार के पुण्य कहे गये हैं, जो दान द्वारा तथा मन, वचन, काय की शुभ प्रवृत्ति द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं, तथा पुण्योत्पादन का आदर्श रखने के लिए ही तीर्थकर लोग दीक्षा लेने से पहले एक वर्ष तक सोनयों का दान देते हैं।
तीर्थकर लोग सोनयों का जो दान देते हैं, वह दान साधु तो लेते ही नहीं हैं, असाधु ही लेते हैं। यदि तीर्थंकरों के उस दान से पुण्य का उत्पन्न होना न माना जावेगा, तो फिर तेरह-पन्धियों की मान्यता के अनुसार उस दान को पाप मानना होगा। क्योंकि तेरह-पन्थियों की ये मान्यताएँ हम ऊपर बता चुके हैं कि
(१) अप्रती को दान देना पाप है। (२) पुण्य से अनेरी (दूसरी) प्रकृति पाप की है। "
इन मान्यताओं के अनुसार तीर्थंकरों द्वारा दिया गया दान पाप ठहरता है । लेकिन तेरह-पन्थियों का यह साहस भी नहीं होता कि तीर्थंकरों द्वारा दिये गये दान को वे पाप कह गलें। इसलिए वे यह कहते हैं कि 'यह तो तीर्थंकरों की रीति है।
दूसरी बात यह कहते हैं कि तीर्थकर जो सोनैया दान देते हैं, · वे सोनेया देवताओं के लाये हुए होते हैं। बहुत ठीक, परन्तु देवों के दिये हुए सोनैया या अन्य चीजों का दान करने से पाप तो नहीं होता न १ तब तो पुण्य ही होगा ? क्योंकि जहाँ पुण्य