Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( ८९ ) नहीं, वहाँ पाप मानते हो; तो जहाँ पाप नहीं, वहाँ पुण्य का होना क्यों न मानोगे ? यदि किसी आदमी को, देवों का, राजा का या वाप-दादा का या जमीन में गड़ा या पड़ा हुआ, बहुतसा धन मिला और उसने लंगड़ों, लूलों, भिखारियों को बाँट दिया, अथवा अनाथाश्रम, अपंगाश्रम या पांजरापोल को दे दिया, तो,
आपकी दृष्टि में उस आदमी का यह दान पाप में रहा या पुण्य में ? ___यदि तेरहपन्थी लोग ऐसे दान को पुण्य में मानें, तब तो फिर उन्हें साधु के सिवाय अन्य लोगों को दिये गये दान में पुण्य मानना हो पड़ेगा, परन्तु तेरहपन्थी लोग, इस तरह के दान को पुण्य नहीं मानते, अपितु पाप मानते हैं। तब तीर्थंकरों द्वारा दिया गया दान, पाप क्यों नहीं रहा ? उसको पाप कहने में संकोच क्यों होता है।
तेरह-पन्थी लोग कहते हैं कि तीर्थंकरों को दान देने को रीति है, इससे वे दान देते हैं। अतः उसमें पुण्य भी नहीं है और पाप भी नहीं है। इसी प्रकार राजा श्रेणिक ने अपने राज्य में किसी जीव को न मारने की घोषणा कराई थी, उसके लिए भीकहते हैं- .
श्रेणिक राजा पटहो फिरावियो यह तो जाणो हो मोटा राजाँ री रीत। भगवन्त न सराह्यो तेहने तो किम 'आवे हो तिणरी परतीत ।
('अनुकम्पा ढाल ७वीं)