Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( ६८ ) श्रेष्ठतम सीमा बताई गई है, श्रावक उस सीमा का पालन पूर्णतया कर रहा है, परन्तु साधु के लिए जो अन्तिम और श्रेष्ठतम सीमा बताई गई है, साधु उससे बहुत ही दूर है, पिछड़ा हुआ है। ऐसा होते हुए भी साधु सुव्रती तथा सुपात्र और श्रावक अवती वया कुपात्र कैसे रह सकता है ? श्रावक भी सुनती तथा सुपात्र है। फिर भी तेरह-पन्थी साध श्रावक के विषय में और श्रावकत्व की चरम सीमा पर पहुँचे हुए ग्यारह प्रतिमाधारी श्रावक के लिए भी कहते हैं कि श्रावक को खिलाना पाप है, श्रावक की सेवा करना पाप है, ग्यारह प्रतिमाघारी श्रावक को भिक्षा देना पाप.है और श्रावक की कुशल-क्षेम पुछना भी पाप है।
हम पूछते हैं कि जब सुनती होने पर भी श्रावक को खिलाना या ग्यारह प्रतिमाधारी श्रावक को भिक्षा देना पाप है, तो साधु को देना धर्म कैसे हो जावेगा? यदि तेरह-पन्यी कहें कि श्रावक में अभी अव्रत शेष हैं, तो उनका यह कहना झूठ है। श्रावक के लिए जितने व्रत बताये गये हैं, वे सब व्रत स्वीकार कर लेने पर अव्रत कहाँ रहा? यदि कहा जावे कि व्रत लेने के बाद जो बाकी रह गया है, वह अबत है, तो जो पाको रहा है उसे भी त्यागना साध का व्रत है, श्रावक का व्रत नहीं है। श्रावक के वो जितने भी व्रत कहे गये हैं, श्रावक उन सब को स्वीकार 'कर चुका है। श्रावक के व्रतों की मर्यादा जिवनी कहो गई है,