Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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ध्ययन सूत्र का पाठ भी देते हैं। मिथ्यात्वी के पाँचों आश्रव खुले हुए हैं। उसने कोई व्रत या प्रत्याख्यान नहीं लिया है, और जो शुभ करणी करता है, वह भी मिथ्यात्व के साथ करता है, सम्यक्त्व पूर्वक नहीं करता है। ऐसा होते हुए भी जब वह सुबती है, तो जिसने मिथ्यात्व और आंशिक अव्रत इन दो आश्रवों को बन्द कर दिया है, वह श्रावक क्या सुनती न होगा ?
इस प्रकार श्रावक भी अधिक सुव्रती है, और साधु भी सुनती है। ऐसी दशा में श्रावक कुपात्र और साधु सुपात्रं कैसे हो सकता है ?
इसके सिवाय वे कहते हैं कि "अव्रती जीव छ: काय का शन है। उसकी शान्ति पूछना अथवा उसको शान्ति देना, अथवा अनेक प्रकार से उसकी सेवा करना सावध पाप है।" परन्तु चारह व्रतधारी श्रावक तो अवती नहीं है। उसके लिए भगवान ने जितने भी व्रत बताये हैं, वे सब व्रत उसने स्वीकार किये हैं, फिर श्रावक का कौनसा व्रत ऐसा शेष रह गया है, जिसके न लेने से वह अव्रती कहला सकता है ? यदि कहा जावे कि साधु की अपेक्षा उसमें चारित्र कम है, इसलिए उसको अप्रती कहा जाता है, तो यथाख्यात चारित्र की अपेक्षा वर्तमान साधु में में भी चारित्र बल बहुत ही कम है। फिर साधु अवती क्यों -नहीं १ बल्कि श्रावक के लिए चारित्र की. जो अन्तिम और