Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( ६१ ) पाउन न करेगा, विपरीत व्यवहार करेगा, तब आप उसको कुपुत्र कहेंगे।
मतलब यह है कि पात्र और अपात्र शब्द अपेक्षाकृत है और 'कु' तथा 'सु' विशेषण पतन और उत्थान का बोध कराने वाले हैं। कोई भी व्यक्ति सब बातों के लिए न तो पात्र है, न अपात्र और न सुपात्र है, न कुपात्र । ऐसा होते हुए भी तेरह-पन्थियों ने संसार के समस्त जीवों को सुपात्र और कुपात्र इन दो भागों में ही विभक्त कर डाला है तथा यह फतवा दे दिया है कि साधु संयमी संजती ( इन्हीं के माने हुए, चाहे उनमें संयम के गुण हों या नहीं, खाली वेष ही हो) के सिवाय सभी लोग कुपात्र हैं। जान पड़ता है कि सब निर्णय उन्हीं के अधीन है, और उनका जो वाक्य निकले, वह उनके अनुयायी-मारवाड़ी सेठों की तरह, सब के लिए 'तहत' हो जावे ।
एक और भी दलील सुनिये! यदि तेरह-पन्थ की मान्यतानुसार साधु के सिवाय सभी कुपात्र हैं तो वे धर्म का उपदेश किनको देते हैं ? कारण कि पात्र ही वस्तु को धारण कर सकता है। अपात्र वस्तु को धारण नहीं कर सकता। जैसे कि सिंहनी का ध धारण करने को स्वर्ण का कटोरा ही पात्र माना जाता है, दूसरा नहीं। जब अपात्र भी उत्तम पदार्थ को धारण नहीं कर सकता, तब धर्म जैसे सर्वोत्कृष्ट पदार्थ के लिए कुपात्र-कैसे योग्य