Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( ६४ ) श्रावक बराबर हैं। यदि दोनों द्वारा तोड़े गये आश्रव की संख्या घटा कर आधी करदी जावे, तो श्रावक के जिम्मे आश्व का अंक.१३४५ रहता है और साधुओं के निम्मे ३४५ रहता है। अब विचार करने की बात है कि जिसको २३४५) रुपया देना है, वह यदि कर्जदार कहा जावेगा, तो क्या जिसे ३४५) रुपया देना है, वह कर्णदार.न कहा जावेगा ? क्या उसको कर्ज-रहित कहा आवेगा ? कर्जदार तो दोनों ही हैं, कोई कम कर्जदार है, कोई ज्यादा।
इसलिए इस प्रकार आश्रव की अपेक्षा से ही श्रावक को कुपात्र कहा जाता है, तो साधु भी कुपात्र ही है। यदि कहा जावे कि श्रावक की अपेक्षा साधु पर श्राश्रव का ऋण बहुत कम है, इसलिए साधु सुपात्र तथा श्रावक कुपात्र है, तो श्रावक इसका जवाब यह देंगे कि मिथ्यात्वी की अपेक्षा श्रावक पर आश्रव का ऋण बहुत कम है, इसलिए मिथ्यात्वी, कुपात्र और श्रावक सुपात्र है। श्रावक की अपेक्षा साधु पर आश्रव का ऋण कम है, इसलिए साधु सुपात्र और श्रावक कुपात्र है। साधु की अपेक्षा केवली में श्राश्रव का ऋण बहुत कम है, इसलिए केवली सुपात्र और साधु कुपात्र है। बल्कि साधु से श्रावक तो केवल ६६१ गुना . अधिक कुपात्र है, परन्तु केवली से साधु ६९ गुना अधिक कुपात्र है, और १४वें गुण स्थान पर पहुँचे हुए तो योग को रुध चुके