Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( ३१ ) तेरह-पन्थी तो कहते हैं कि
धन धान्यादिक लोकां ने दिया यह तो निश्चय ही सावध दानजो। तिण में धर्म नहीं जिण राज रो ते भाष्यो छे श्री भगवानजी ॥
('अनुकम्पा' ढाल १२ वीं) अर्थात्-लोगों को धन धान्य देना निश्चय ही सावध (पाप) दान है। उसमें जिनराज का धर्म नहीं है, ऐसा श्री भगवान ने कहा है।
इसके अनुसार भगवान अरिष्टनेमि ने सारथी को आभूषण देकर क्यों पाप किया जिसमें धर्म नहीं हैं, और जो सावद्य (पाप) है, वह दान भगवान भरिष्टनेमि ने क्यों दिया १% क्या उनको तेरह-पन्थ के एक साधारण साधु एवं श्रावक जितना ज्ञान भी
8 तेरह-पन्थी लोग दान में पुण्य नहीं मानते। यदि वे दानादि से पुण्य का बन्ध होना मानते हों, तब तो फिर चाहिए ही क्या। लेकिन वे तो स्पष्ट कहते हैं कि- - ___ "पुण्य तो धर्म लारे बंधे के, ते शुभ योग छ । ते निर्जरा विना पुण्य निपजे नहीं। ते माटे असंयति ने दियां धर्म पुण्य नहीं।"
('भ्रम-विध्वंसन' दानाधिकार बोल २०) अर्थात् पुण्य तो निर्जरा के साथ उत्पन्न होता है, इसलिए असंयति को देने से न धर्म है न पुण्य ।