Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( ३२ ) न था ? तेरह-पन्थ के सिद्धान्तानुसार, असंयति होने के कारण वह सारथी कुपात्र था, इसलिए उन्होंने कुपात्र को आभूषण तथा वर्षी दान देकर माँस-भक्षण व्यसन कुशीलादिक के समान पाप क्यों किया ? तेरह-पन्थी लोग चाहे भगवान अरिष्टनेमि के इन कार्यों को भी पाप कहने का साहस कर डालें, परन्तु वास्तव में भगवान अरिष्टनेमि के चरित्र से यह स्पष्ट है कि- (१) एकेन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय जीवों की रक्षा प्रधान है, एकेन्द्रिय जीवों की रक्षा गौण है।।
(२) पंचेन्द्रिय जीवों की रक्षा के लिए एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा महत्व सूचफ नहीं है।
(३) साधु के सिवाय अन्य लोगों को दान देना पाप नहीं है।
इन समस्त दलीलों द्वारा यह बताना इष्ट है कि एकेन्द्रिय
: * "साधु थी अनेरा कुपात्र छ। तेहने दीधा अनेरी प्रकृति नो बंध ते अनेरी प्रकृति पाप नी छे।"
('भ्रम-विध्वंसन' दानाधिकार बोल १८) .. अर्थात्-साधु के सिवा सब लोग कृपान हैं और कुपात्र को देने से दूसरी प्रकृति पाप की है, उसका बंध होता है।
“कुपान दान, माँसादि सेवन, व्यसन कुशीलादिक ये तीनों ही एक मार्ग के ही पथिक हैं।"
('भ्रम-विध्वंसन' दानाधिकार बोल २१ का फुटनोट)