Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( ५० ) कोई साधु उनका जीना मरना इच्छता है, तो उसको राग और द्वेष दोनों ही लगते हैं। अव्रती जीव छःकायिक जीवों के शस्त्र हैं, इसलिए उनका जीवन असंयम पूर्ण है। सर्व सावध का त्याग जिन्होंने किया है, उन्हीं का जीवन संयम पूर्ण है।
और भी कहते हैं कि
असंयम जीवितव्य ने वाल मरण याँ री आशा वांछा नहीं करणी जी । पंडित मरण ने संयम जीवितव्य नी आशा वांछा मन धरणी जी।
('अनुकम्पा' ढाल वीं) कर्मा करने जीवड़ा, उपजे ने मरजाय । असंयम जीतव तेहनो, साधु न करे उपाय ।
('अनुकम्पा ढाल ३री) असंयति जीवाँ रो जीवणो ते सावध जीतव साक्षात् जी। तिण ने देवे तो सावध दान छे तिण मे धर्म नहीं अंश मात जी ॥
('अनुकम्पा दाल १२ वीं)
साधु और गृहस्थ का आचरण, दोनों की रीति और दोनों की अनुकम्पा एक ही है, ऐसा तेरह-पन्थी मानते हैं नो पहले वताया जा चुका है। .