Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( ४७ ) में साध, अपने मन से ही बकरे का बाप बना है, और अपने मन से ही यह भी कहता है कि बकरा मरकर कर्म ऋण चुका रहा है।
इन दोनों बातों को शास्त्रीय समर्थन भी प्राप्त नहीं है, तथा ऊपर यह भी सिद्ध किया जा चुका है कि मरता हुआ बकरा, कर्म बाँधता है, किन्तु चुकाता नहीं है। लेकिन श्रावक, साधु के बाप तुल्य है और आहार न मिलने पर साधु के कर्म की महा निर्जरा होती है, इन दोनों ही बातों को शास्त्रीय समर्थन मी प्राप्त है। __आप ही से पूछते हैं, कि शास्त्र में श्रावक को साधु का मातापिता कहा है या नहीं ? और आहार न मिलने पर साधु को समाधि पूर्वक कर्म की निर्जरा करना कहा है या नहीं ? इसलिए जो श्रावक, साधु को आहार-पानी देता है और कर्म ऋण चुकाते हुए साधु को कर्म ऋण चुकाने से रोकता है वह तेरह-पन्थ के सिद्धान्तानुसार पापी हुआ या नहीं ? और तेरह-पन्थी लोग जिसकी महान् महिमा गाते हैं, वह सुपात्र दान उन्हीं के सिद्धान्त से पाप ठहरता है या नहीं ? यदि साधु को आहार-पानी देना धर्म है, तो मरते हुए जीव को बचाना अथवा कष्ट पाते हुए जीव की सहायता करना पाप क्यों होगा ? .
इस सम्बन्ध में और भी बहुतसी युक्तियाँ दी जा सकती हैं, लेकिन इतनी ही युक्तियों से तेरह-पन्थ का यह सिद्धान्त गलत और असंगत ठहरता है, कि 'मरते हुए की रक्षा करने या दोन