Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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वे तो क्षुधा के कष्ट को समता पूर्वक ही सहेंगे और समता पूर्वक कष्ट सहने से कर्म की महा निर्जरा होती है, यह बात जैन शास्त्र भी कहते हैं और श्राप भी मानते हैं। साथ ही आप यह भी कहते है कि कर्म ऋण चुकाते हुए को अन्तराय देना पाप है । जैसा कि आपने बकरे और राजपूत का उदाहरण दिया है । आपके सिद्धान्त को मानने वाला यदि कोई आदमी सोचे कि आहार मिलने से मुनि के कर्म की निर्जरा होती हुई रुक जावेगी । ऐसा सोचकर वह स्वयं भी मुनि को पारणे के लिए आहार न दे, तथा औरों से भी कहे कि मुनि के कर्म की होती हुई निर्जरा मत रोको, तो उसका यह कार्य अनुचित तो न होगा ? इसके सिवा जो लोग मुनि को आहार देकर उनको कर्म ऋण चुकाने से रोक देते हैं, उनको पाप तो न होगा ? जिस तरह आपके उदाहरण में साधु, बकरे और राजपूत दोनों का बाप है, उसी तरह शास्त्रानुसार श्रावक भी साधु के बाप हैं। जिस तरह साधु, बकरे को कर्म ऋण चुकाने से नहीं रोकते, उसी प्रकार श्रावक को भी यही उचित है कि कर्म ऋण चुकाते हुए कर्म की निर्जरा करते हुएसाधु को वह न रोके। ऐसा होते हुए भी यदि कोई श्रावक साधु को आहार देकर उन्हें कर्म ऋण चुकाने से रोकते हैं, तो उनको भी वैसा ही पाप हुआ या नहीं, जैसा पाप कर्म ऋण चुकाते बकरे को बचाने से हो सकता है ? बल्कि आपके दृष्टान्त
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हुए