Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
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( १८) तीसरी दलील सुनिये ! तेरह-पन्थी साधु से यदि यह प्रश्न किया जावे कि आप विहार करके यहाँ क्यों आये हैं ? तो वे यही कहेंगे कि धर्म प्रचार के लिए, अथवा लोगों को शुद्ध धर्म बताने के लिए, या अपने गुरु की आज्ञा पालन करने के लिए।
करेगी। इस प्रकार उस केरदी के कारण पाप की जो परम्परा चली, वह तुम्हें भी लगेगी।
उस दिन सोहनलालजी को अपने धर्म का असली स्वरूप ज्ञात हुआ। उन्होंने श्री कालुरामजी महाराज से कहा कि आप अपने धर्म को अपने पास ही रखिये, मुझे आपका यह धर्म नहीं चाहिए। मैं तो धर्म का सार यह समझता था कि"आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् । अर्थात्जो अपने आत्मा को बुरा लगता है, वह व्यवहार दूसरों के साथ न करो, किन्तु दूसरे के साथ भी वह व्यवहार करो जो अपने आत्मा को . अच्छा लगता है। : इसके अनुसार यदि मैं पानी में डूबने लगता तो यही चाहता कि कोई मुझे बचाले। यही बात वह केरदी भी चाह रही थी। फिर मैंने बचा दिया तो मुझे पाप कैसे होगया? कदाचित् किसी दिन मैं भी पानी में डूबने लगू और कोई आपके सिद्धान्त का अनुसरण करके मुझे न निकाले, तो मुझे कितना दुःख होगा। इसलिए माज से मैं तेरह-पन्य सम्प्रदाय को त्यागता हूँ। मैं किसी धर्म का अनुयायी न रहना तो अच्छा मानूंगा, परन्तु तेरह-पन्थ का अनुयायी कदापि न रहूँगा। - उस दिन से सोहनलालजी ने तेरह-पन्ध सम्प्रदाय को सदा के लिए त्याग दिया।
-लेखक .