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हर्षातिरेक से मेरे नयन भर आये, होंठ क्षणार्ध के लिए फडफडा उठ, मन-मयूर नृत्य कर उठा। धीरे से मैं उठा और अपनी झोली फैला दी। सहसा वातावरण को भेदता एक अज्ञात स्वर फूट पडा 'भिक्षां देहि'....सच, क्या मैं ठीक सुन रहा हूँ ? और तभी सोचा : "भिक्षुक-से भला क्या भिक्षा माँगना?" हे भगवन, फिर तुम्हारा वास्तविक स्वरूप क्या
उदार दिल ? दानेश्वरी ? या कृपण ? खैर, तुम जो भी हो। लो यह मेरी वासना...मेरा मिथ्याभिमान और अक्खडपन ! ताकि मैं तो हल्का हो जाऊँ, मेरा वर्षों का बोझ उतर जाएँ। लो नवकार अकिंचन की भेंट ले लो। अब ना न कहना, मैं इससे ही धन्य हो जाऊँगा। साथ ही स्वयं उदार और तुम कृपण !!
हे नवकार महान
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