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७४. नाम का मोह
शाश्वतनाम गुणधाम नवकार ! मेरे नाम को अजरामर बनाने के लिये निरंतर प्रयत्नशील था ! तभी कहीं से एक मंजुल झंकार की लहरियाँ उभर आयीं वातावरण में . . .! 'अरे मुग्ध मानव, तू साधक बना ! काम को जीत गया, परन्तु नाम के मोह को फिर भी न भूला? भला नाम भी किसी का अमर रहा है?' नाम उसका नाश यह बोल कई बार तुमने ही दोहराये हैं न? इतना भी याद नहीं रहता ? याद रख ! सागर की एक एक तरंग नाम के रंग को मिटाती जाती है ! बड़े बड़े नामों को भी सागर की ये तरंग मिटाना नहीं भलती ! देव के नाम को मिटाती है। देवेन्द्र के नाम को मिटाती है ! देवाधिदेव के नाम को भी मिटाती है ! फिर भोले मानव ! तुम्हारी भला क्या हस्ती ? अमर रहा न किसी का नाम ! अतः सदा के लिए भूल जा तू तेरा नाम ! अमर है जगत में बस एक ही नाम !
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हे नवकार महान
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