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॥ ओम अर्हम् नमः ॥ त्वमेव शरणं, त्वमेव शरणं । शरणं शरणं शरणं शरणं ।।
महा आनन्द ग्रीष्म की संध्या में विशाल उद्यान में जब मृदु दूर्वा पर चहल कदमी करते हो, समीपस्थ नदी के स्पर्श से शीतल बनी मन्द और शुद्ध समीर बहती हो तब वहाँ दुनिया के साक्षात स्वर्ग सा अद्भुत अकल्पय आभास होता है। ऐसे भौतिक आनन्दप्रद वातावरण में श्री 'नवकार' का हास्य मुख पर स्मित करता हो और उसी तरह क्लेस के कंटक और कंकाश के कर्कश कंकरों से हृदय शीर्ण-विशीर्ण होता हो। विषाद के आवों से असंख्य उलझने खड़ी होती हो ऐसी विषम दुख:दायी परिस्थितियों में भी श्री 'नवकार' का हास्य मुख पर मुस्कराता हो तो समझ लेना चाहिये कि श्री 'नवकार' के महा आनन्द के स्वाद का आस्वाद गुणी पुरूष ले रहे हैं और स्थितिप्रज्ञता बनाये रख रहे हैं।
हे नवकार महान
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