Book Title: He Navkar Mahan
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Padmasagarsuriji

View full book text
Previous | Next

Page 79
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८. विरह की वेदना मा म हृदयेश्वर नवकार ! यदि तुम्हें मुझे छोड़कर चला ही जाना था, तो इस प्रकार स्नेह-प्रेम की ज्योति क्यों प्रज्वलित की? विरह सहने की असीम शक्ति तुमने मुझे दी है। क्या मेरा कोई अपराध तुम्हारी नजर में आया है ? मैंने बहुत-बहुत त्याग किया है, तुम्हें पाने के लिए तेरे ध्यान से बाहर तो नहीं न, कहीं यह तथ्य ? फिर भला मझे छोडकर जाने का कारण ही क्या ? विरह की वेदना बिच्छु के डंक से भी ज्यादा कातिल होती है। सर्प की फुत्कार से भी ज्यादा भीषण और भयंकर होती है। ऐसे दारूण दुःख में झोंकने से भला क्या लाभ ? मेरे भाग्य ! हृदयेश्वर !! तुम एक बात अवश्य ध्यान में रखना। कार महान For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126