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५८. विरह की वेदना
मा म हृदयेश्वर नवकार ! यदि तुम्हें मुझे छोड़कर चला ही जाना था, तो इस प्रकार स्नेह-प्रेम की ज्योति क्यों प्रज्वलित की? विरह सहने की असीम शक्ति तुमने मुझे दी है। क्या मेरा कोई अपराध तुम्हारी नजर में आया है ? मैंने बहुत-बहुत त्याग किया है, तुम्हें पाने के लिए तेरे ध्यान से बाहर तो नहीं न, कहीं यह तथ्य ? फिर भला मझे छोडकर जाने का कारण ही क्या ? विरह की वेदना बिच्छु के डंक से भी ज्यादा कातिल होती है। सर्प की फुत्कार से भी ज्यादा भीषण और भयंकर होती है। ऐसे दारूण दुःख में झोंकने से भला क्या लाभ ? मेरे भाग्य ! हृदयेश्वर !! तुम एक बात अवश्य ध्यान में रखना।
कार महान
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