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६७. चिंता नहीं
ओ प्राण जीवन नवकार !
अपने मन मन्दिर में मुझे बुला लो ! चरणों में स्थान दे दो !
दिल में बसा लो और सान्निध्य में रख लो ! फिर मुझे किसी बात की चिन्ता नहीं ? भले ही मार्ग में अंगारें बिछ जावें ! कण्टक छा जावे !
संकटों के पहाड़ टूट जावे !!
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६८. अमूल्य अवसर
मैं तुम्हारे रस भरे नयनों को
निरखता था और तुम्हारी मोहक आँखें करुणा के स्तोत्र बरसातीं थी ।
जनतारक नवकार !
स्तोत्र इशारे ही इशारे में कहते थे मेरे पास है चले आओ !
तुम्हारे रोग, शोक, दुःख दारिद्र को धो दूँ !! मैं स्तोत्र के पास गया तो सही !
किन्तु छत्री ओढ़कर !
उस छत्री की ममता रूपी चिकनी डंठी थी ।
हे नवकार महान
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