Book Title: He Navkar Mahan
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Padmasagarsuriji

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Page 93
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 3 www.kobatirth.org धनुष से बाण अलग हो गया । प्रभो ! प्रभो !! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह अमूल्य अवसर खोने का दुःख मेरे हृदय को बिंध रहा है, उसे चीर-चीर रहा है ! ! ६९. आषाढी मेघ .८० हृदय वत्सल नवकार ! - आषाढी कृष्ण धवल घटाओं से घटाटोप दिन-रात, एक समान बन गये हैं ! आसमानी आकाश को बादलों ने काले पर्दे से ढँक दिया है । सनसनाता पवन भी आज बेमतलब तन और मन को अधिक से अधिक सता रहा है ! चंद्र की शीतलता भी दुःख दे रही है ! वन-पर्वत नीरव बन गये हैं ! राज मार्ग और हाट हवेलियाँ भी आज निर्जन वन गयी हैं ! छोटे बडे आवास धुप्प अंधेरे में बन्द हैं ! और वन प्रान्तर, कुंज - निकुंज वीरान हैं, उदास हैं ! हे एकाकी सखा । प्रियतम नवकार !! मेरा द्वार खुला है, स्वप्न की तरह आकर कहीं चले न जाना ! हे नवकार महान For Private And Personal Use Only

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