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धनुष से बाण अलग हो गया । प्रभो ! प्रभो !!
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यह अमूल्य अवसर खोने का दुःख मेरे हृदय को बिंध रहा है, उसे चीर-चीर रहा है ! !
६९. आषाढी मेघ
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हृदय वत्सल नवकार !
- आषाढी कृष्ण धवल घटाओं से
घटाटोप दिन-रात, एक समान बन गये हैं ! आसमानी आकाश को बादलों ने
काले पर्दे से ढँक दिया है ।
सनसनाता पवन भी आज बेमतलब तन और मन को अधिक से अधिक सता रहा है ! चंद्र की शीतलता भी दुःख दे रही है ! वन-पर्वत नीरव बन गये हैं ! राज मार्ग और हाट हवेलियाँ भी आज निर्जन वन गयी हैं !
छोटे बडे आवास धुप्प अंधेरे में बन्द हैं ! और वन प्रान्तर, कुंज - निकुंज वीरान हैं, उदास हैं !
हे एकाकी सखा । प्रियतम नवकार !! मेरा द्वार खुला है,
स्वप्न की तरह आकर कहीं चले न जाना !
हे नवकार महान
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