Book Title: He Navkar Mahan
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Padmasagarsuriji

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Page 96
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७१. प्रिय व्यथा अन्तर्यामी नवकार ! तुम्हारी प्रतीक्षा भी मुझे प्रिय लगती है ! नवकार ! तेरे द्वार पर बैठा मेरा भिखारी मन, तुम्हारी करुणा को चाह रहा है ! ओ अन्तर्यामी ! प्रतीक्षा करते-करते मेरी आँखे थक गयी ! तुमसे मिलन न हो सका फिर भी प्रतीक्षा कर रहा हूँ ! कभी तो मिलन होगा आँखोंसे होंगी आँखे चार, मधुर साक्षात्कार; यदि तुम्हारी करुणा न मिली तो मेरी कामना तृप्त नहीं होगी । और अब प्रियतम, यह व्यथा मेरे हृदय को व्यथित करती रहेगी ! भले ही करें ! ! हे नवकार महान Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३ For Private And Personal Use Only

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