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७१. प्रिय व्यथा अन्तर्यामी नवकार !
तुम्हारी प्रतीक्षा भी मुझे प्रिय लगती है ! नवकार ! तेरे द्वार पर बैठा मेरा भिखारी मन,
तुम्हारी करुणा को चाह रहा है ! ओ अन्तर्यामी !
प्रतीक्षा करते-करते मेरी आँखे थक गयी ! तुमसे मिलन न हो सका
फिर भी प्रतीक्षा कर रहा हूँ !
कभी तो मिलन होगा आँखोंसे होंगी आँखे चार,
मधुर साक्षात्कार;
यदि तुम्हारी करुणा न मिली
तो मेरी कामना तृप्त नहीं होगी ।
और अब प्रियतम, यह व्यथा मेरे हृदय को व्यथित करती रहेगी ! भले ही करें ! !
हे नवकार महान
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