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'तुझे मैंने नहीं देखा... तुझे मैंने नहीं देखा' आलस्यवश रास्ते के किनारे बैठ, आराम के लिये बिछौने की व्यवस्था की। तब सहसा स्मरण हो आया कि यह प्रवास तो निष्प्रयोजन है। भला इसका क्या प्रयोजन ? कारण 'तुझे मैं न देख सका तो? तुम मुझे भूल तो नहीं जाओगे ?' सोते-जागते, उठते-बैठते और खाते-पीते नित्य प्रति यहीं एक चिंता अनवरत लगी रहती है। मेरे घर में चाहे जितने हास्य के होज हो, ध्वजापताका-तोरण और दीपमालाओं से घर दमकता हो। गुलाबजल, अत्तर और धप से घर महकता हो। किन्तु तुम नहीं आओगे ? यह बात याद आते ही दिल टूट-टूटकर टुकडे-टुकडे हो जाता है । यह वेदना कभी भूली नहीं जा सकती। तुम मुझे भूल तो नहीं जाओगे न ? यह शंका सोते-जागते हमेशा मन को खाये जाती ! !
हे नवकार महान
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