Book Title: He Navkar Mahan
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Padmasagarsuriji

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Page 45
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 0 www.kobatirth.org वह कर्म स्वरुप धुल- धूसर है साथ ही मृत्यु शाप से ग्रस्त और त्रस्त है । मेरा अंतःकरण सदा उसे धिक्कारता है । फिर भी उस पर मुझे स्नेह है- मोह है, अमीट - असीम ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेरे ऋण और कर्ज का अन्त नहीं । मेरे खाते में अनेक जीवों की रकम जमा है । मेरे जीवन की असफलताएँ अनगिनत हैं । मेरी लज्जा की कोई मर्यादा या सीमा नहीं, किन्तु जब कल्याण की भिक्षा माँगने आपके सम्मुख आता हूँ । तब मन ही मनमें कंपित हो उठता हूँ । कहीं मेरी भिक्षा स्वीकार न हो जाय ? कहीं मेरे शरीर और हृदय के मैले कुचेले आच्छादन को तुम छिन्न-भिन्न न कर दो ? मेरी बन्धन-श्रृंखला तुम तोड़ न दो ! इसके साथ मेरी भव-भवान्तर से प्रीति जो है ! ३२ २८. पूजा प्राप्त हो स्नेह कुंज ! प्रेम कुंज नवकार ! मुझे यह ज्ञात नहीं कि तुम्हारे पास क्या माँगना चाहिये ? For Private And Personal Use Only हे नवकार महान

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