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घनघोर काले आषाढी मेघ गये ! शरद ऋतु की शुभ्रावलय में लिपटी धटाएँ फिसल गयीं। परन्तु आप मेरे आँगन में न आये सो न आये! शिशिर और वसंत की ऋतु बीत भी गयी। आम्र वृक्षों पर मोर आये किन्तु दिल के चोरआप मेरी झोपडी में न आये सो न आये ! ग्रीष्म का उत्ताप तप, तप कर चला गया। वर्षा के बादल पुनः पुनः रिमझिम-रिमझिम बरसने लगे । विद्युत चमक-दमक संजोये पूर जोर से चमकने लगी। किन्तु आप मेरे घर न आये, सो न आये ! निराश नयन, उदास वदन कब तक राह देखू तेरी? आशा की उष्मा है कि अब भी आप आओग। किन्तु आप मेरे द्वार पर न आये सो न आये।
ओ दिल और दीनके तारणहार । फिर भी आप न आये सो न आये।
५३. मधुपेय
विश्वभर्ता नवकार !
मैं तुम्हारे आतिथ्य के लिये ताजे फल ले लाया हूँ।
हे नवकार महान
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