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उनमें से सुन्दर मधुर फल छाँटे ! छाँटे हुये इन फलों का अमृत रस निकाला । इसमें शर्करा, लौंग और
मरीचिका जी भर कर मिलाई ।
प्रिंसी
और स्वादिष्ट शीतल मधु पेय बनाया । उज्ज्वल चंद्र समान स्फटिक रत्न के पात्र में उसे सावधानी से भरा !
यह सोचा कि
तुम मेरे आँगन में आओगे ।
विनय, विवेक और मैत्री भाव से यह पात्र तुम्हें अर्पण करूँगा और विनम्र, सरल और स्नेह भाव से मैं तुम्हारे सामने बैठूंगा ।
तुम शीतल मधुपेय का पान करोगे । तुम्हे शांति मिलेगी, मुझे विश्रान्ति ! ! तुम प्रसन्न होंगे, मुझे वरदान मिलेगा ! ! ! पलक झपकते आप कह उठोगे: "माँग, माँग, माँग”
तब मैं एक वचन माँगूँगा,
" मम हुज्ज सेवा भवे भवे तुम्ह चलणाणं" भवों-भव मुझे तुम्हारे चरणों की सेवा मिले । इन चरणों का वियोग कभी भी न हो !
सच, स्वप्न में भी न हो !
और फिर वचन की डोर में
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बँधे तुम स्नेह भरे वरदान के पाश से कदापि मुक्त नहीं हो पाओगे ! ! ! कदापि चलित नहीं हो सकोगे ! ! ! !
हे नवकार महान
מר לכם
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