Book Title: He Navkar Mahan
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Padmasagarsuriji

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उनमें से सुन्दर मधुर फल छाँटे ! छाँटे हुये इन फलों का अमृत रस निकाला । इसमें शर्करा, लौंग और मरीचिका जी भर कर मिलाई । प्रिंसी और स्वादिष्ट शीतल मधु पेय बनाया । उज्ज्वल चंद्र समान स्फटिक रत्न के पात्र में उसे सावधानी से भरा ! यह सोचा कि तुम मेरे आँगन में आओगे । विनय, विवेक और मैत्री भाव से यह पात्र तुम्हें अर्पण करूँगा और विनम्र, सरल और स्नेह भाव से मैं तुम्हारे सामने बैठूंगा । तुम शीतल मधुपेय का पान करोगे । तुम्हे शांति मिलेगी, मुझे विश्रान्ति ! ! तुम प्रसन्न होंगे, मुझे वरदान मिलेगा ! ! ! पलक झपकते आप कह उठोगे: "माँग, माँग, माँग” तब मैं एक वचन माँगूँगा, " मम हुज्ज सेवा भवे भवे तुम्ह चलणाणं" भवों-भव मुझे तुम्हारे चरणों की सेवा मिले । इन चरणों का वियोग कभी भी न हो ! सच, स्वप्न में भी न हो ! और फिर वचन की डोर में Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बँधे तुम स्नेह भरे वरदान के पाश से कदापि मुक्त नहीं हो पाओगे ! ! ! कदापि चलित नहीं हो सकोगे ! ! ! ! हे नवकार महान מר לכם ६१ For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126