Book Title: He Navkar Mahan
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Padmasagarsuriji

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Page 68
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४७. अल्प भिक्षा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रिय नाथ प्राणपति नवकार ! कि मैं तुम्हारे पास इतनी ही भिक्षा माँगता हूँ तुम मेरे में इतना ही 'ममत्व भाव' भर दो कि मैं तुझे अपना मानूँ, अन्य को नहीं ! मेरे में इतनी चेतना रहने दो कि सिर्फ तुझे ही समझ सकूँ ? अन्य को नहीं । मुझे ऐसे बंधन में बाँध दे कि तुम्हारे ही प्रेमपाश में अंत तक बंधा रहूँ बाट और मेरा समस्त जीवन तुम्हारे ही ध्यान में सदा मस्त रहे, अन्य में नहीं ! मेरे में इतना ही प्रेम स्नेह रहने दो कि वह तुझे ही अर्पण करूँ, अन्य को नहीं ! प्रियनाथ | .१४ तुम से शिर्फ इतनी ही अल्प भिक्षा चाहता हूँ । TETS TEF कर्फ ४८. विश्वस के आधार पर वियोगी-योगी नवकार ! पुत्री आज से मैं तुम्हारे विश्वास पर रहना सीखता हूँ । और शरीर की संपूर्ण विस्मृति हो जाय ऐसी दशा सिद्ध करने का IP 12P BE हे नवकार महान ५५ For Private And Personal Use Only

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