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४७. अल्प भिक्षा
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प्रिय नाथ प्राणपति नवकार !
कि
मैं तुम्हारे पास इतनी ही भिक्षा माँगता हूँ तुम मेरे में इतना ही 'ममत्व भाव' भर दो कि मैं तुझे
अपना मानूँ, अन्य को नहीं !
मेरे में इतनी चेतना रहने दो कि सिर्फ तुझे ही समझ सकूँ ? अन्य को नहीं ।
मुझे ऐसे बंधन में बाँध दे कि तुम्हारे ही प्रेमपाश में अंत तक बंधा रहूँ
बाट
और मेरा समस्त जीवन तुम्हारे ही ध्यान में
सदा मस्त रहे, अन्य में नहीं ! मेरे में इतना ही प्रेम स्नेह रहने दो कि वह तुझे ही अर्पण
करूँ, अन्य को नहीं !
प्रियनाथ |
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तुम से शिर्फ इतनी ही अल्प भिक्षा चाहता हूँ ।
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४८. विश्वस के आधार पर
वियोगी-योगी नवकार !
पुत्री
आज से मैं तुम्हारे विश्वास पर रहना सीखता हूँ । और शरीर की संपूर्ण विस्मृति हो जाय ऐसी दशा सिद्ध करने का
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हे नवकार महान
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