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४६. रक्षा बन्धन पशा करुणागार अरुणाकार नवकार ! आज मैं तुम्हें राखी बाँधने आया हूँ ! इसे तुम हगिज छिपा न लेना। सच भगवन् ! तुम्हें राखी बाँधकर मैं जगती के जीवमात्र को ही स्नेह बन्धन में बाँध लूँगा। मैत्री भावना के इस पवित्र और अटूट बंधन से कोई बाहर रह जाए! यह सम्भव नहीं ! राखी में यह मेरा और वह दूसरा ऐसा कोई भेद नहीं है। मैं भीतर और बाहर सब जगह साथ ही सब को सौम्य और साम्य, कानाराम एक समान देख रहा हूँ। तेरे विरह दुःख में रोते-कलपते मैं इतनी बार भटका कि जिसका कोई अंदाज नहीं ! परन्तु वह विरह क्षण पलक झपकते ही नष्ट हो गया ! अब मैं तुम्हारी ओर बढता चला आ रहा हूँ। तुम्हारी कलाई पर राखी जो बांधनी है ! प्रियतम, हगिज तुम इसे छिपा न लेना !
हे नवकार महान
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