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४५. साम्य सौम्य
स्नेही विदेही नवकार ! आज तो.... मेरे अंग अंग में आनंद है !ीवोहम मेरे रोम रोम में रोमाँच है ! मेरे नेत्रों में उन्माद है ! मेरे उर में अनोखी उमंग है ! या किन्तु कारण समझ में नहीं आता ? आज तुमने आकाश से धरा तक मुझे और बार मेरे मन को विकसित कर दिया है। मैत्री भाव में सब साम्य और सौम्य मुझे दिखाई देते हैं। क्या यही मेरे आनन्द का कारण तो नहीं? तो भी मैं जिसे खोज रहा हूँ ! उसके साथ अवश्य मिलन होगा? या उसे ढूंढने हेतु दर-दर भटकना पड़ेगा ? मुझे इसकी कुछ समझ नहीं..... उसी प्रकार यह आनन्द, रोमांच, उन्माद और उमंग क्यों हैं ? उसकी भी मुझे कोई समझ नहीं ।
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हे नवकार महान
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