Book Title: He Navkar Mahan
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Padmasagarsuriji

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Page 44
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org है स्वीकार ? मेरी अनुनय मानो और शीघ्र आओ । ये नयन लगे हैं तुम्हारी प्रतीक्षा में !! २७. मोह शृंखला मनरंजन निरंजन नवकार ! मेरी मोह की श्रृंखला अत्यंत दृढ है । और मेरी कामना है कि तू इसे तोड़ दे । परन्तु जब यह टूटने लगती हैं, तब मेरा मन कातर हो उठता है । आपके पास मुक्ति माँगने अवश्य आता हूँ । किन्तु मुक्ति की कल्पना से ही भय-भीत वन जाता हूँ । मेरे जीवन की आप ही सर्व श्रेष्ठ अक्षय निधि हो । आपसा अनमोल धन मेरे लिये दूसरा कोई नहीं । यह मैं भली भाँति जानता हूँ, 印 तथापि मेरे घर में जो टूटे-फूटे बर्तन ठीकरे हैं उन्हें भी फेंकने के लिए मेरा मन नहीं करता । भगवन्, यह कैसा भाव ? जो आवरण मेरे हृदय पर पड़ा है । हे नवकार महान ३१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only 52

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