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है स्वीकार ?
मेरी अनुनय मानो और शीघ्र आओ ।
ये नयन लगे हैं तुम्हारी प्रतीक्षा में !!
२७. मोह शृंखला
मनरंजन निरंजन नवकार !
मेरी मोह की श्रृंखला अत्यंत दृढ है ।
और मेरी कामना है कि तू इसे तोड़ दे । परन्तु जब यह टूटने लगती हैं, तब मेरा मन कातर हो उठता है ।
आपके पास मुक्ति माँगने अवश्य आता हूँ । किन्तु मुक्ति की कल्पना से ही
भय-भीत वन जाता हूँ । मेरे जीवन की आप ही सर्व श्रेष्ठ अक्षय निधि हो । आपसा अनमोल धन
मेरे लिये दूसरा कोई नहीं ।
यह मैं भली भाँति जानता हूँ,
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तथापि मेरे घर में जो टूटे-फूटे बर्तन ठीकरे हैं उन्हें भी फेंकने के लिए मेरा मन नहीं करता । भगवन्, यह कैसा भाव ?
जो आवरण मेरे हृदय पर पड़ा है ।
हे नवकार महान
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